बॉलीवुड फिल्मो कि कहानियो में मौलिकता की कमी से फिल्मो के दर्शकों की संख्या कम होती जा रही है और समीक्षकों द्वारा इसकी अलोचना के साथ-साथ चिंता व्यक्त की जा रही हैl
आलोचकों द्वारा समीक्षा और आलोचना
फ़िल्म समीक्षकों का कहना है कि हाल के वर्षों में बॉलीवुड ने नवीनता खो दी है। कई विश्लेषकों के अनुसार पुरानी कहानियों अब दोहराया जा रहा हैं और पुराने हिट फिल्मों के रीमेक्स का ज़्यादा सहारा लिया जा रहा है। उदाहरण के लिए, जाने-माने निर्माता आनंद पंडित ने हाल ही में बॉलीवुड की “मौलिकता की कमी” और चलचित्रों में अनावश्यक आइटम नंबरों को बॉक्स ऑफिस में असफलता का कारण बताया।
आलोचक सुहासिनी मणिरत्नम ने भी बॉलीवुड पर “अंतरराष्ट्रीय फ़िल्मों की नक़ल” करने और सितारों को स्टीरियोटाइप भूमिकाओं तक सीमित रखने का आरोप लगाया है। इसी तरह अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने बॉलीवुड को “क्रिएटिव बैरनसी” (कलात्मक दिवालियापन) का शिकार बताते हुए कहा है कि यहां लगातार एक ही फ़ार्मूला दोहराया जा रहा है और चल रहे सीक्वल “पैथेटिक” बन गए हैं। इन आलोचनाओं से स्पष्ट है कि समीक्षकों की नज़र में बॉलीवुड की अनेक वर्तमान फ़िल्मों में कहानी की गहराई और मौलिकता की कमी है।
दर्शकों की प्रतिक्रिया (सोशल मीडिया व समीक्षक मंच)
आधुनिक दर्शक सोशल मीडिया पर भी बॉलीवुड की फ़िल्मों के पैटर्न से खिन्न दिखते हैं। हालिया बड़े बजट की फिल्मों के रिलीज़ के दौरान ट्विटर और फेसबुक पर #BoycottBollywood जैसे हैशटैग ट्रेंड हुए हैं, जहाँ दर्शक बार-बार दोहराई जा रही कहानियों और सिर्फ सितारों के दम पर चलने वाली फ़िल्मों पर नाखुशी ज़ाहिर कर रहे हैं।
सोशल मीडिया पर नेपोटिज्म और विवादों की चर्चाएँ भी बढ़ गई हैं, जिससे विशेषकर सुशांत सिंह राजपूत के निधन के बाद एक वर्ग की नाराजगी बढ़ी है। हालांकि हर सितारा इन बहिष्कार-आह्वानों को गंभीरता से नहीं लेता; उदाहरण के लिए, तापसी पन्नू ने कहा कि फ़िल्मों के बहिष्कार की अपील “मज़ाक” के अलावा कुछ नहीं है और यह दर्शकों की बुद्धिमत्ता को कम आँकना है।
दूसरी ओर, दर्शकों की बदलती प्राथमिकताएँ भी नज़र आई हैं। नई रिपोर्टों के अनुसार आज भारतीय सिनेमाघर दर्शक विभिन्न ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म्स पर उपलब्ध क्षेत्रीय और विदेशी कंटेंट की भरमार के चलते पहले से अधिक जागरूक हो गए हैं।

उन्हें अब तुरंत ही वही पुरानी कहानियाँ आकर्षित नहीं करतीँ; इसलिए जब बॉलीवुड में बार-बार एक ही तरह की फ़ार्मूला फ़िल्में रिलीज होती हैं, तो दर्शक उन्हें नीरस समझने लगे हैं। इस तरह समीक्षकों एवं दर्शकों दोनों की राय में बॉलीवुड ने हालिया वर्षों में कहानी-कहानी में मौलिकता को जाने दिया है।
क्षेत्रीय सिनेमा में मौलिकता और विविधता के उदाहरण
वहीं, क्षेत्रीय सिनेमा ने कई नई और मौलिक कहानियाँ प्रस्तुत की हैं। विशेषज्ञों के मुताबिक महाराष्ट्र, मलयालम, तमिल और तेलुगु जैसी भाषाओं की फ़िल्में स्थानीय संदर्भों में जमी मजबूत पटकथाओं के लिए जानी जाती हैं। उदाहरण के लिए:
- महाराष्ट्र (मराठी): Court (2014) और सैराट (2016) ने सामाजिक न्याय और जाति भेदभाव जैसे ज्वलंत मुद्दों को निर्भीकता से उठाया। इन फिल्मों की सफलताएँ दिखाती हैं कि सीमित बजट में भी गहरी रचनात्मक कहानी संभव है।
- केरल (मलयालम): दृश्यम (2013) और Bangalore Days (2014) ने यथार्थपरक थ्रिलर और युवा जीवन के जटिल रिश्तों की कहानी बताई। इन फ़िल्मों की लिखावट में पात्रों की गहराई और यथार्थवाद को ख़ूब सराहा गया।
- दक्षिण भाषायों की फ़िल्में: बाहुबली श्रृंखला (2015-17), KGF (2018, 2022), (पुष्पा 2021, 2025) और RRR (2022) जैसी फ़िल्में महाकाव्य स्तर की कहानियों और भव्य निर्माण-मूल्यों के लिए जानी गईं। इन्होने कथानक, एक्शन और सिनेमैटोग्राफी में नई कसौटियाँ स्थापित कीं। उदाहरण के लिए बाहुबली ने वैश्विक बॉक्स ऑफिस रिकॉर्ड तोड़ दिए और दिखाया कि क्षेत्रीय फिल्मों के पास बड़े पैमाने की गुणवत्ता है।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि क्षेत्रीय सिनेमा ने विषय और प्रस्तुति दोनों में बॉलीवुड से अलग और प्रगाढ़ विकल्प पेश किए हैं, जिसे समीक्षकों ने बार-बार रेखांकित किया है।
बॉलीवुड की वर्तमान प्रवृत्तियाँ: रीमेक, स्टार सिस्टम, मार्केटिंग
- रीमेक और सीक्वल: आज बॉलीवुड में दक्षिणी और अंतरराष्ट्रीय फिल्मों के रीमेक्स का ज़ोरदार चलन है। लेकिन हालिया विश्लेषण बताते हैं कि रीमेक की बढ़ती संख्या और मूल फिल्में OTT प्लेटफ़ॉर्म पर आसानी से उपलब्ध होने की वजह से दर्शक नये रूप में वही कहानी देखने से ऊब चुके हैं।
कई हालिया रीमेक कई फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर उम्मीद के मुताबिक़ नहीं चल पा रही हैं। यह दर्शाता है कि रीमेक-फ़ॉर्मूला अब पहले जितना भरोसेमंद नहीं रहा। - स्टार किड्स और नेपोटिज्म: छोटे बजट की फिल्मों में अब नए बॉलीवुड सितारों (स्टार किड्स) को लॉन्च करके मार्केटिंग बज़ बनाने की रणनीति अपनाई जा रही है। ट्रेड विश्लेषकों का कहना है कि नेपोटिज्म पर निरंतर बहस होती रहती है, परंतु प्रतिभाशाली स्टार-किड्स अंततः ऑडियंस की पसंद बन जाते हैं।
उदाहरण के लिए, लोवयापा, आज़ाद जैसी फिल्मों में स्टार बच्चों की कास्टिंग का लक्ष्य ओटीटी बेचने में आसानी है। यह रुझान इस बात का संकेत है कि बॉलीवुड अपने “स्टार सिस्टम” पर ज़्यादा निर्भर हो गया है। - मार्केटिंग रणनीतियाँ: बॉलीवुड की प्रचार नीति भी काफी टेम्पलेट हो चुकी है। आम तौर पर फ़िल्म की एक विशेषता (जैसे गाना या एक्शन सीक्वेंस) को पहले टीज़र या सॉन्ग के रूप में पेश किया जाता है, फिर सितारे टीवी-इंटरव्यू, सोशल मीडिया और इन्फ्लुएंसर के ज़रिए अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
सोशल सामोसा के एक सर्वे में बताया गया है कि इस “फीचर-मार्केटिंग” तरीक़े से फ़िल्में खुद-ब-खुद बिकने की कोशिश करती हैं, लेकिन यह भी कहा गया कि अब अधिक साहसी और उच्च-जोखिम वाले अभियान अपनाने की ज़रूरत है।
इन प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि बॉलीवुड फिलहाल बड़े सितारों, रीमेक्स और परम्परागत प्रचार-पद्धतियों पर ज़्यादा निर्भर हैl समीक्षकों और विशेषज्ञों का मानना है कि इस फॉर्मूले में बदलाव लाने पर ही बॉलीवुड फिर से रचनात्मक ऊँचाइयाँ छू पाएगा।
Disclaimer: ये लेख timesofindia.indiatimes.com, livemint.com, socialsamosa.com में छपी जानकारी, समीक्षकों और विशेषज्ञों की लिखी राय से संकलित हैl